Saturday, September 22, 2012

कीर्ति गाँधी










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Wednesday, December 21, 2011

अनीता सक्सेना



मैं बादल 
तू पर्वत ही सही
तू लाख करे इंकार मगर
तुझसे मिलने मैं 
आऊंगा तो सही
तेरी हरी-भरी वादियों में 
छाऊँगा तो कहीं 
हर सुबह शबनम बन 
तेरी जुल्फों में 
मोतियों सा चमकूँगा
तेरे माथे को 
हौले से सहलाऊंगा
सरे शाम जब 
हवाएं सरसराएंगीं
मुझे साथ लिए आयेंगीं 
ठण्ड से कांपेंगीं
और आहिस्ते-आहिस्ते
तेरे आंचल में समा जाएँगी 
तब चुपके से 
तेरी सांसों को मैं सुनूंगा 
तू भी शायद 
मेरी धडकनों को गिन सके
मेरी पीर अगर बहेगी 
नीर बन कर  तो
तेरे अंदर भी तो 
दर्द के सोते बहेंगे
मेरे दिल में अगर 
बिजली की चमक है तो
तू भी तो लावा 
अपने दिल में लिए बैठी है
तू अचल-अडिग
कभी मुंह तो खोल
कुछ तो बोल
न आने दे वो घड़ी कि
तेरे अंदर का लावा दहक उठे और
मेरे अंदर की बिजली कहर ढा
हम दोनों को भस्म कर दे

Wednesday, November 30, 2011

डॉ.सुशीला कपूर














डॉ.सुशीला कपूर 
संस्थापक 
हिंदी लेखिका संघ , मध्यप्रदेश , भोपाल




यों ही 

यों ही संशय सदा तुम किया न करो 
स्नेह गौरव सदा को सुखा जायेगा 
रूप अंकित तुम्हारा हृदय बिम्ब में 
विश्वासों के जल से निखारो , सखे
यों ही संशय -शिखा जो दिखाते रहे 
स्नेह - दर्पण दरारा तो हो जायेगा !

स्नेह - तागा बटा चाह के तन्तु से 
विश्वासों का मांझा , लगन रंग से
शंका - चरखी पर यों तानते जो रहे
शत - खंडों में टूटा न जुड़ पायेगा !

प्रेम - प्रतिज्ञा पुजे त्याग के पाप से
औ' पुजापे में सर्वस्व  चढ़ाना पड़े
यों ही शंका की छेनी चलते रहे 
विश्वासों का मन्दिर ही ढह जायेगा 

स्नेह - कोल सरस पदम तन्तु प्रिये
बंधना मन-मतंग सहज न सखे 
यों ही संशय - सुरा जो चढाते रहे 
स्नेह का संतुलन ही बिगड़ जायेगा !

विश्वासों की यमुना पुलिन पर प्रिये
संगमरमरी - चाहों गढ़ा ताज ये 
यों ही संशय प्रदूषण फैलाते रहे 
स्नेह का ताज बदरंग हो जायेगा !

मन - चकोरा रमा भूल दूरी प्रिये
चाहत-चांदनी में अंगारे चुगे 
यों अकारण उपेक्षा दिखाते रहे
प्रेम - कुकनू सदा को ही जल जायेगा ! ( नर - नारायणी से साभार )

डॉ.राजश्री रावत















भूतपूर्व अध्यक्ष
हिंदी लेखिका संघ
मध्यप्रदेश , भोपाल

अधरों पर ख़ामोशी 

अधरों पर ख़ामोशी लेकर 
मन का गीत सुना दो तुम !
मौन समर्पण आखों से दो तुम
नैनों से मुस्का दो तुम !

कम्पित कर में हृदय कटोरा
अक्षयपात्र लिए हो तुम !
अश्रुकणों से जल अर्पण कर
चरण धुलाने आये तुम !
अधरों आशा प्रेमदान की
पल-पल रटन लगा दो तुम !
मौन समर्पण आखों से दो तुम
नैनों से मुस्का दो तुम !

कलियों ने निज पंखुरी खोली
मन में करें हंसी-ठिठोली 
मन की बगिया ऐसी डोली 
खाली हुई हृदय की झोली 
मन का आंगन अब चमक उठे 
पलकों पर दीप जला दो तुम !
मौन समर्पण आखों से दो तुम
नैनों से मुस्का दो तुम !

पल दो पल की बात नहीं है 
ये कोई सौगात नहीं है 
सारा जीवन ही पूजा है 
झूठी सच्ची बात नहीं है 
विष भी अमृत हो जायेगा 
मीरा सी लगन लो तुम !
मौन समर्पण आखों से दो तुम
नैनों से मुस्का दो तुम !







उषा जायसवाल














अध्यक्ष
हिंदी लेखिका संघ
मध्यप्रदेश , भोपाल



दिया -दिया 

यह दिया तुम्हारा दिया -दिया
प्रभु तुमने ही तो दिया-दिया !

यह माटी का जो दिया-दिया
उसमें तुमने रंग-रूप दिया !

तुमने सुंदर आकर दिया
धरती का अनुपम रूप दिया !

इसमें तुमने ही तेल दिया
बाती भी तेरा दिया-दिया !

ज्योति तुम्हीं ने इसे दिया
जलने का सीमित अवधि दिया !

तम हरने का अधिकार दिया
फिर बुझने का व्यापार दिया !

प्रभु जब तक जलता रहे दिया
यश-गान तुम्हारा करे दिया !

तेरी भक्ति में ही जले दिया
तेरी शक्ति से तम हरे दिया !

पल-छिन  जो तूने इसे दिया
वह बीते सुंदर दिया-दिया !


















Monday, November 28, 2011

कुलतार कौर कक्कड़






तुम्हें भुलाना

बहुत कठिन है तुम्हें भुलाना
कितनी बार कहा है तुमसे
मुझको याद  अधिक मत आना
बहुत कठिन है तुम्हें भुलाना  !

मधु - मधुरतम तेरी  बातें
प्राणों में रस घोल निरंतर
खिल-खिल जाते पुष्प गुच्छ से
अनुपम छवि में जैसे छवि धर
अपूर्व सुनहले सुन्दरतम तुम
सौन्दर्य  बोध से मत घबराना
बहुत कठिन है तुम्हें भुलाना !

जैसे लहर-लहर सागर में
नर्तन करती फिर खो जाती
लय  हो जाती महाकार में
अपना ही अस्तित्व मिटती
फिर भी नाता महा सिन्धु से
अनजाना  कुछ है पहचाना
बहुत कठिन है तुम्हें भुलाना !

जीवन के पल बिखरे-बिखरे
केवल स्मृतियाँ हैं शेष
एकांत अकेले खोये-खोये
खोजें क्या है यहाँ विशेष
धक-धक धडकन बोल रही है
साँस-साँस में तुम बस जाना
बहुत कठिन है तुम्हें भुलाना  !

मन में नूतन नवल कल्पना
तेरी छवि को और संवारूं
इस पर्वत से , इस घाटी से
उस असीम तक तुम्हें पुकारूँ
पूनम की खिली रजनी में
मिलन का मौसम हो सुहाना !

कितनी बार कहा है तुमसे
मुझको याद  अधिक मत आना

बहुत कठिन है तुम्हें भुलाना !

आशा श्रीवास्तव





जाने क्यों याद आता है


अम्बर पर घिरती सघन घन घटाएं
घनों के घोर से कंपकंपाती ये हवाएं
विकल होता है ये मन
दामिनी की दमक से उजला ये बदन
जाने क्यों याद आता है !

खिले हुए पुष्प पर मंडराता भंवरा
चिड़ियों का छोटा सा आशियाना
किनारों को छूकर लहरों का आना
जलते दिए की लौ  का उठाना
जाने क्यों याद आता है

सूनी मुंडेरों पर उदासी का साया
विरह मन की वेदना
उलझ कर हाथों की हथेलियाँ
बालों का सुलझाना
जाने क्यों याद आता है